भूख के मेहमान
शोषण की मेजबान
शाम को अद्धे या पव्वे से
अपनी भड़ास मिटाते
दरकती दिवार पर बैठ हँसते हैं !
अलाव से हाथ सेकते
मुहँ से निकलते भाप के साथ
व्यवस्था (कु),
आभावों, कष्टों आवश्यकताओं पर
करते हैं अर्थहीन चर्चा,
पूरी शिद्दत से
अंत में थक कर विषपायी कंठों के
इन स्वरों में ही
अपने ध्वन्यार्थ ढ़ुढते
वादों की कश्ती
उम्मीदों की दरिया !
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