बुधवार, 25 दिसंबर 2013


दंड! दंड!
चिल्लाते हुए
सदी के इस छोर पर
अतातायी भी,
कारवाँ के सौदागर भी
हाट बाजार में
धपाधप भाग रहे थे
हा न्याय! हा न्याय!
के रुदन की चीत्कारें
कुचलते हुए।
एक बड़े मैदान में
प्रदर्शनी लगी थी-
फांसी की मजबूत रस्सियाँ
जेल की सलाखें
बैंत, कोड़े सजाकर रखे थे
जल्लादों की भर्ती खुली थी
मौत देने के तरीकों पर
धर्म पुस्तिकाऐं रखीं थी
नींव के पत्थरों पर
पड़ा था बलि का खून!
नुमाइश में बैठीं थीं
बिकने के लिए
अधनंगी जवान महिलाऐं
खरोंचों के वहशी निशान
जंधाओं पर खुली छातियों पर
खरीदारों को लुभाते थे
पकड़ कर रखे थे
गुलाम!
दूर महल में खूबसूरत फूल थे
आदम के कद से उँचे बुत थे
रंगबिरंगे फव्वारे थे
तितलियां थीं
विद्वजन थे विदुषियां थीं
दरबार में नीतियों पर चर्चाऐं
गंभीर थी
राजा बेहद रहमदिल था।
चाहता था
कोड़े नरम हों
हत्थे मुलायम हों
अधनंगी महिलाओं का जिस्म
सलीके से भोगा जाये
स्नान और उबटन
तैल और इत्र
उनके बदन में मला जाय
खाना बेशक कम दिया जाय।
गुलामों का सौदा
पारदर्शिता से हो।
खोज के लाऐ जाऐं
और और गुलाम
नजर में रखी जाँय
सारी जवान युवतियां
महान राज्य
की बुलंदियां कायम रहें
हर चीज मध्युगीन थी
पर बाजार आधुनिक था।


 

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