बुधवार, 25 दिसंबर 2013

ये भारतवर्ष है ।
जहाँ किसान के पसीने पर
अन्न का दलाल चाँदी काटता है 
जहाँ रबी-खरीफ का खेतीहर
आम की सूखी गुठली चाटता है 
और मेरा पहाड़ तो `शेष भारत` कहलाता है
जहाँ मुख्यधारा की नहरेँ तो दूर
रोपाई का धान अदद गूल को तरसता है
गेहूँ का बसन्तीकरण बर्फ को तरसता है
जायद का गुलाबी मौसम
अब केवल
बन्दरोँ का पेट भरता है 
हैरान पुरखों की थात है
परेशान बैलों की जमात है
यहाँ काश्तकार का जमीर
कौड़ी के भाव बिकता है
और केवल हिन्दी बोल पाने वाला
हर महत्वाकाँक्षी पहाड़ी
व्यवसाय के आगे कृषि लिखता है ।


 

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