बुधवार, 25 दिसंबर 2013

तब
जब भेड़ें चराते हुए गड़रिए
जा चुके थे उत्तर की ओर
तह की जा चुकी थी
मोटी मोटी स्वेटरें
बच्चे जाने लगे थे
स्कूलों को सुबह सुबह
और शाम को
बढ़ने लगी थी चहल पहल
बाजार से आगे की सुनसान सड़क पर
तब
जब खाली हो गए थे
अबाबील के घोंसले
माँएं होने लगी थी नाराज
आइसक्रीम के धब्बों पर
और थिरकने लगे थे
कोल्ड ड्रिंक
तब
जब पानी हो चला था अमृत
और जमीन
हजारों आंखें बनाए
देख रही थी तुम्हारा रास्ता,
हमारे पहाड़ों में
दीख पड़ता था सूरज
लाल गेंद सा
बेधते हुए धुंए को पर्दे को
और सूरज के विदा लेते ही
नाचने लगते थे पहाड़
गले में डाले हुए
लाल सुलगती मालाएं
बेतरतीब।
तब
जब लू ने ले लिया था ठंड से मौत का चार्ज
और बांट दिया था हवा पानी और कीड़ों में
जब बढ़ गई थी
दवा विक्रेताओं के चेहरों की रौनक
तब
जब हो रहा था ये सभी कुछ
और न जाने क्या क्या
हम इंतजार में थे तुम्हारे
तुम आई तो सही
मगर साथ ले आई
डूबते घरों की चीत्कार
खिसकते हुए पहाड़
बह गए खेतों की सिसकियां
और धंसती जमीन सी आशाएं।

असंतुष्ट होना नहीं है हमारी आदत
पर अपेक्षाएं हैं कि
छू भर लेना चाहती हैं
कुछ अच्छे दिन
बिना चीख पुकार के।


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