शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

रमोलिया- 01 (अनिल कार्की)



ए हो राजा नियम के
ए हो राजा धरम के
तेरी गुद्दी फोड़ गिद्द खाए  
तेरे हाड़ सियार चूसे  
मूसे के मुसियाल धंसे तेरे अपशकुनी पैर  
लमपुछिया कीड़े पड़े तेरी मीठी जुबान में  
मख्खियाँ भनके तेरी आखों में  
आदमी का खून लगी तेरी जुबान


डुंग में रह जाए रे  
तेरा नाम लेवा न बचे कोई
अमूस का कलिया  
रोग का पीलिया  
चोट के नीशान सा नीला  
दुःख से ढीली हो जाय तेरी ठसक

ए हो मेरे पुरखो  
खेत के हलिया  
आँगन के हुड़किया  
आफंर के ल्वार  
गाड़ के मछलिया  
ढोल के ढोलियार  
होली के होल्यार  
रतेली की बोजी  
फतोई के औजी  
जाग जाग रे मेरे भीतर

ए हो मेरे पुरखो खेत के कामगारो  
पहाड़ों के देवदारो  
जमीन के दावेदारो  
धिनाली के दुदघरो  
देख लो रे आज देख लो  
अपने पनाती ,झड़नाती ,पड़नाती की औलादों को


गाँव की सीवान से लेकर  
शहर की चौबाटिया तक हर जगह लुट रहे है रे तेरे लाल  
अघीयाने बामुन की भैसियानी खीर से सड़ रहे है हिमाल सन्तानें
खसिया खिसक गये है  
हसिया खत्म हो गये है  
और हौसिया प्राण तिलबिला रहा है  
रजवाड़े अल्पसंख्यक होकर आरक्षण खा रहे है  
हल बाने वाले अब भी हल बा रहे रहे है
आहा हो ठाकुरो  
कौन सुनाएगा रे देली में ऋतूरैन  
कौन बीरों की कथा कहेगा ऐसे बखत में  
जब बीर बचे ही नहीं

ए हो मेरे पुरखो  
जागो जागो रे मेरे भीतर 
इस बखत के बीच में !
 
अनिल कार्की


9456757646


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