बुधवार, 25 दिसंबर 2013

अपने कंधों पर रखे
चपचमाते फरसे कुल्हाड़े
लपलपाती आरियां लिए हाथों में
वे उतरते चले आते
गाड़ पार की ढलान पर
ऊंची आवाज में बतियाते
जोर से हंसते
बीड़ी फूंकते वे चले आते
गाड़ पार होते ही
सुनाई देने लग जाती
उनके पुराने फौजी बूटों की खट-खट
पास पहुंचते दिखाई देने लगती
काले पड़ चुके दांतों की लंबी निर्दोष मुस्कान
पसीने की महकती गंध में लिपटे
गुजरते जाते गांव के बीच से चिरानी
दूर दराज के जंगलों को
रुकते कभी चाय पीने को
सुनाते किस्से कि
इन घरों की धूर बान
भीते बल्ली द्वार मोल
सब में बहा उनका ही पसीना
हमें तब वे विश्वकर्मा का अवतार लगते
मय दानव के कौशल की कथा सुनते
स्मरण इन्हीं का होता
रामलीला में परशुराम का पात्र
इनके फरसे की याद दिलाता
चिरान के समय कभी इनके पास बैठे हम
लकड़ी चीरने की आवाज में बिठाते
कई गीतों के बोल
और बिना रुके चलते जाते इनके हाथ
घस्स घस घस्स घस
उठते बस माथे से पसीना पोंछने,
जाने कहां गई अब वे फौजी वर्दियां
वो जंगलों से गूंजती जिंदा
धुक धुक ठुक ठुक
अब चिरानी खो गए हैं
जंगलों के साथ ही
सरकारी वर्दियां घूमती है बस
बंद जंगलों में
जिनमें आग लगती है
जिनमें बाघ लगता है
जिनसे लीसा निकलता है
जिनसे झोला बिकता है
जिनमें पत्थर की खानें हैं
जहां फॉरेस्ट  के बंगले हैं
जिनमें देवदार के जंगले हैं
मोटर गाड़ियां हैं
टौल टैक्स है
नहीं है तो चिरानी
अपनी लंबी और निर्दोष मुस्कान से
पहचाना जाने वाला
आज वह जंगल को
खिसियाया हुआ ताकता है.


 

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