मंगलवार, 31 दिसंबर 2013


वो कवितायेँ लिखते हैं
तस्वीरें खींचते हैं
पहाड़ के ऊपर
वो है पहाड़ के परम हितैसी
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उनकी चिंता के केन्द्र में होती है लुप्त होती पहाडी बोलियां
उनके बच्चे पढते हैं कॉन्वेंट में
सिर्फ अंग्रेजी बोलते हैं
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वो इस बात से खौफज़दा हैं कि
ढोली ढोल बजाना बंद कर रहे हैं
वो फिर से लिखते हैं कविता ढोल के ऊपर
पर ढोली का छुआ पानी पीना पाप है उनके लिए
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खाली होते गांव उनको अक्सर
सपने में आकर डरा जाते हैं
जबकि वो चैन से सो रहे होते हैं दिल्ली में ए सी रूम में
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उनको भट्ट के डुबके बहुत पसंद हैं
इसीलिए वो होते हैं नाराज़ पहाडियों से कि
उन्होंने भट्ट उगाना कम कर दिया
मेक डोनाल्ड खाते हुए वो अक्सर अपने ब्लॉग में लिखते हैं इन विषयों पर
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महान हैं वो
कुछ साल के अंतर में आते हैं पहाड़ घूमने
टूटी सडको में हिचकोले खाते ही उनको लगने लगता है
कि पहाड़ में ट्रेन चलनी चाहिए
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उनकी पकड़ है मंत्रियो विधायको तक
उनके भाई भतीजे चिपकते जा रहे हैं सचिवालयों, अख़बारों, न्यूज़ चेनलों में
इसलिए वो अक्सर पहाड़ के लोगो की अकर्मण्यता झल्लाते भी हैं
"
कोई स्वरोजगार भी नहीं कर सकते ये लोग"
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उनमें से कुछ अब आते हैं हर साल पहाड़ में कुछ विदेशी चेहरों को साथ लेकर
उन्होंने कई चरागाहों में बना दिए हैं आलीशान रिजोर्ट
वो पहाड़ के परम हितैसी अब लखपति नहीं रहे करोड़पति बन गए हैं
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वो कभी कभी मिलते हैं पहाड़ का हित साधन करने के उपाय खोजने
किसी महानगर के किसी आलीशान होटल में
किताबें निकालते हैं
सेमीनार करते हैं
वो पहाड़ के परम हितैसी
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इस बीच मेरे गांव का नौला लगातार सूखता ही जाता है
विश्व बैंक से पैसे बहते है कई बेनामी खातों में
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वो पहाड़ में चढ़ कर चमकते जा रहे हैं
परम हितैसी पहाड़ के

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विनोद  उप्रेती

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

उदास है कमला - 2 (विक्रम नेगी)



उदास है कमला
चाची ने डांट दिया
सुबह-सुबह....

चाची कहती है- “बंद कर अब ये उछलकूद,
दिनभर अड्डू खेलना, गुट्टी खेलना,
इस उम्र में लड़कियों को ये सब शोभा नहीं देता,
घर के कामों में हाथ बंटा,
अब तू बड़ी हो गयी है,
पराये घर जायेगी, तो वहाँ क्या करेगी,
ये गुट्टी खेलना, अड्डू खेलना वहाँ नहीं चलेगा,
अभी से आदत डाल ले, कुछ घर के काम सीख...”

चाची कहती रही....
और कमला ऐसे सुनते रही
जैसे उसने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो
और उसे उसकी सजा सुनाई जा रही हो....

आज पहली बार उसने ये सब नहीं सुना था,
थोड़ा-थोड़ा सुनते आई थी वो बचपन से,
सैकड़ों बार उसके कानों में घोले गए थे
ये शब्द “कि वो बड़ी हो गयी है”

और हर बार
इन शब्दों को अनसुना करके
वो फिर मगन हो जाया करती थी
अपनी सहेलियों के साथ
सैनदेवी-कैचीमाला खेलने में.....

लेकिन आज उसे ऐसा लगा
जैसे उसकी आज़ादी छिन गयी है
माँ, चाची और आमा की डांट
उसे कभी भी इतनी बुरी नहीं लगी
जितनी आज उसने महसूस की....

याद है उसे वो दिन
जब पिछले साल
पहली बार वो अपनी सहेलियों के साथ
मेला देखने गयी थी
अपने वजीफे के जमा पैसों से
बहुत कुछ खरीदा था उसने मेले से...

माँ के लिए- एक बिंदी का पैकेट, एक जोड़ी बिच्छु, थोड़ा सिन्दूर, 
आमा के लिए- एक नया हुक्का, तीन तमाकू की पिंडी, कुछ बीड़ी के बण्डल
घर के लिए- आधा किलो मिसरी, पावभर जलेबी और एक सुप्पा......

उसने अपने लिए भी कुछ ख़रीदा था.....

शाम को जब वो घर पहुची
तो माँ के सामने उसने सारा सामान फैला दिया
सिवाय अपनी चीज़ों के...

माँ ने पूछा- अपने लिए क्या लायी..??
कमला ने डरते-डरते जवाब दिया- एक जोड़ी पैंट-कमीज का कपडा...
माँ ने एक जोर का चांटा मारा
कमला रो पड़ी....
उसने देखा था कई बार
अखबार के पन्नों में
लड़कियों को पैंट पहने....
उसे अच्छा लगता था......!

उसके छोटे-छोटे सपने
कब टूटते गए, उसे पता ही नहीं चला,
आज वो सब दिन फिर से याद कर रही है
जैसे कुछ हुआ ही न हो....

शाम का वक्त है.....
कमला उदास बैठी है,
चाची ओखल में धान कूट रही है,
आमा आज भी बाहर हुक्का गुडगुडा रही है,
माँ अभी नहीं लौटी खेतों से....!

 
विक्रम  नेगी
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